दल-बदल कानून बनने के बाद भी स्थिति जस की तस
महाराष्ट्र चुनाव आयोग के फैसले सै उद्धव ठाकरे के हाथ से शिवसेना निकल गई है। आयोग ने 78 पन्नों के अपने फैसले में पार्टी का नाम ‘शिवसेना’ और सिंबल ‘धनुष और बाण’ एकनाथ शिंदे गुट को दे दिया। आयोग ने यह भी बताया कि पिछले साल अक्टूबर में शिंदे गुट को जो पार्टी का नाम ‘बालासाहेबांची शिव सेना’ और सिंबल ‘दो तलवार और एक ढाल’ दिया था, उसे अब फ्रीज कर दिया जाएगा। आज हम आपको दल बदल कानून के बारे में बताएंगे।
52वें संविधान संशोधन से दलबदल विरोधी कानून’पारित
वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में ‘दलबदल विरोधी कानून’ पारित किया गया था। इसे संविधान की दसवीं अनुसूची में जोड़ा गया। इस कानून का मुख्य उद्देश्य भारतीय राजनीति में दलबदल की गलत परंपरा को समाप्त करना था।
दल बदल विरोधी कानून के मुताबिक, एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में या उसके साथ विलय की अनुमति है, बशर्ते उसके कम से कम दो तिहाई विधायक विलय के पक्ष में हों।
सदन का अध्यक्ष बनने वाले सदस्य को छूट
महाराष्ट्र चुनाव अगर किसी पार्टी से दो तिहाई सदस्य टूटकर दूसरी पार्टी में जाते हैं तो उनका पद बना रहेगा, यानी विधायक का पद बचा रहेगा, लेकिन अगर संख्या इससे कम होती है तो उन्हें विधायक के पद से इस्तीफा देना पड़ेगा। ऐसे में न तो दल बदल रहे सदस्यों पर कानून लागू होगा और न ही राजनीतिक दल पर। इसके अलावा सदन का अध्यक्ष बनने वाले सदस्य को इस कानून से छूट है।
ये करने पर लगता है दल-बदल कानून
महाराष्ट्र चुनाव एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है। कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है। किसी सदस्य द्वारा सदन में पार्टी के रुख के विपरीत वोट किया जाता है। कोई सदस्य स्वयं को वोटिंग से अलग रखता है।
छह महीने की अवधि के बाद कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है। कानून के अनुसार सदन के अध्यक्ष के पास सदस्यों को अयोग्य करार देने संबंधी निर्णय लेने की शक्ति है। अध्यक्ष जिस दल से है, यदि शिकायत उसी दल से संबंधित है तो सदन द्वारा चुने गए किसी अन्य सदस्य को इस संबंध में निर्णय लेने का अधिकार है।
इसलिए पड़ी दल-बदल कानून की जरूरत
यह अनुभव किया जाने लगा कि राजनीतिक दलों द्वारा अपने सामूहिक जनादेश की अनदेखी की जाने लगी है। विधायकों और सांसदों के जोड़-तोड़ से सरकारें बनने और गिरने लगीं। अक्टूबर, 1967 में हरियाणा के एक विधायक गया लाल ने 15 दिनों के भीतर तीन बार दल बदलकर इस मुद्दे को राजनीति की मुख्यधारा में ला दिया था। अंतत: 1985 में संविधान संशोधन कर यह कानून लाया गया।
मध्य प्रदेश में कांग्रेस के 22 विधायकों का दलबदल
मध्य प्रदेश में कांग्रेस के 22 विधायकों के दलबदल से कमलनाथ की 15 माह पुरानी सरकार सत्ता से बाहर हो गई थी। 2019 में गोवा में कांग्रेस और सिक्किम में सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट के 15 में से 10 विधायकों ने अपनी-अपनी पार्टी का भाजपा में विलय कर लिया था। राजस्थान में बसपा के सभी छह विधायक कांग्रेस में चले गए।
अयोग्यता के लिए आधार
-कोई निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है।
-वह अपने राजनीतिक दल द्वारा जारी किसी निर्देश के विपरीत सदन में मतदान करता है या मतदान से दूर रहता है।
-कोई सदस्य जो स्वतंत्र रूप से निर्वाचित होता है, किसी दल में शामिल होता है।
-यदि कोई मनोनीत सदस्य 6 महीने की समाप्ति के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है।
-दल-बदल के आधार पर अयोग्यता के सवालों पर निर्णय अध्यक्ष या सदन के सभापति को भेजा जाता है, और उनका निर्णय अंतिम होता है।
-इस अनुसूची के तहत अयोग्यता के संबंध में सभी कार्यवाहियों को संसद या किसी राज्य के विधानमंडल की कार्यवाही माना जाता है।
दल-बदल विरोधी कानून के तहत अपवाद
ऐसी स्थिति में जहां एक राजनीतिक दल के दो-तिहाई विधायक किसी अन्य दल में विलय करने का निर्णय लेते हैं, न तो सदस्य जो शामिल होने का निर्णय लेते हैं और न ही जो मूल दल के साथ रहते हैं, उन्हें अयोग्यता का सामना करना पड़ेगा।
अध्यक्ष या स्पीकर के रूप में निर्वाचित कोई भी व्यक्ति अपनी पार्टी से इस्तीफा दे सकता है, और यदि वह उस पद को छोड़ देता है तो पार्टी में शामिल हो सकता है। पहले, कानून पार्टियों को विभाजित करने की अनुमति देता था, लेकिन वर्तमान में इसे गैरकानूनी घोषित कर दिया गया है।
अयोग्यता निर्णायक प्राधिकरण
दल-बदल से उत्पन्न अयोग्यता के संबंध में किसी भी प्रश्न का निर्णय सदन के पीठासीन अधिकारी द्वारा किया जाता है।
ऐसे ही कंटेंट के लिए देखे कैमफायर न्यूज |